सुन लो मेरी पुकार !
कोई सुन लो मेरी पुकार !!
थी कली मैं पिता के आंगन,
अब हूँ मैं ससुराल ।
रोज दंश यहाँ सहना पड़ता ,
सदा मिलती फटकार ।
कोई सुन लो मेरी पुकार .........
बचपन मेरा खेल में गुजरा,
मिलता था घर में प्यार ।
भाई बहन संग होती ठिठोली,
अब होता तिरस्कार ।
कोई सुन लो मेरी पुकार .........
हुई जवाँ मैं घर में बड़ी थी,
चर्चा चली विवाह ।
पिता जी मेरे घर से निकले,
करने वर व्यापार ।
कोई सुन लो मेरी पुकार .........
कठिन परिश्रम कर एक मिला,
पति परमेश्वर भगवान ।
पिता हमारे धन कुछ देकर,
कर दिये मुझको दान ।
कर्मभूमि को जब मैं आयी,
थोड़ा दिन मिला मान ।
हुआ आरंभ अब कठोर बचन का,
हर छण ही अपमान ।
कोई सुन लो मेरी पुकार .........
समझ नहीं मैं पायी थी,
क्यों मिल रहा अपमान ।
क्या कमियाँ है मुझमें ऐसी,
शुरू हो गया मार ।
कोई सुन लो मेरी पुकार .........
एक दिन ऐसा समय आ गया,
मिला मुझे जवाब ।
बाप तेरा नहीं धन दिया है,
क्या करूँ सत्कार ।
कोई सुन लो मेरी पुकार .........
हे कुलक्षिणी कुलघातनी !
छोड़ यहाँ दरबार ।
जाओ अपने माई के घर तू,
मैं नहीं भर्तार ।
कोई सुन लो मेरी पुकार .........
हे प्राणप्रिय ! विनती मेरी,
नहीं करो मुझे त्याग ।
पिता सामर्थ्य भर धन दे दिये,
अब वे हैं लाचार ।
कोई सुन लो मेरी पुकार .........
मेरे पिता के धन से तू नहीं,
होगे मालामाल ।
कुछ करनी तू खुद कर ऐसा,
धन का हो अंबार ।
कोई सुन लो मेरी पुकार .........
मुझे सीख नहीं तुम से लेना,
धन कमाने का हाल ।
छोड़ भाग अब घर से मेरे ,
नहीं है मुझको प्यार ।
मार-पीट बतकूचन होते,
हो गया अब रात ।
अंधियारा का लाभ लेकर,
फेंक दिया बधार ।
कोई सुन लो मेरी पुकार .........
निर्दय होकर पीट-पीट मुझे,
किया यहाँ बेहाल ।
नयन सिंधु से आँसू गिर रहा ,
जैसे अविरल धार ।
कोई सुन लो मेरी पुकार .........
नहीं सहारा है कोई मेरा,
किसे सुनाउँ हाल ।
हे प्रभु! अब सुन कुछ मेरी,
जन के तारणहार ।
कोई सुन लो मेरी पुकार .........
आधी रजनी पड़ी अकेली,
इस निर्जन संसार ।
वदन दुख रहा नयन सुख रहा,
रतिया गुजरे भार ।
कोई सुन लो मेरी पुकार .........
© गोपाल पाठक