कविता संग्रह

Friday, June 4, 2021

दीन दरिद्र पहाड़

 देख सखी मुस्कान छवि नित 

अधरों पे कुछ धार ।

तेज चमकता मुख की शोभा 

भले नहीं गलेहार ।


फटे बसन तन मैल पड़े हैं 

नहीं कोई परवाह ।

हँसी की छटा घटा पटा है 

नहीं विलास की चाह ।


भुज विशाल है कंचन शोभा ,

भूख मरूँ क्या मार ?

लाल सलोने आंगन रूदन 

सुनूँ कैसे चीत्कार  ?

घर घूँघट की लाज बड़ी या

भूख गरीबी मार ।

नारी हूँ नर की शक्ति मैं ,

अबला बन नहीं हार ।


सर पे भार सहज ही लगता ,

दीन दरिद्र पहाड़ ।

धूल बदन हो मन नहीं व्याकुल ,

जेठ दुपहरिया ठाड़ ।


कहूँ कहाँ मैं रोऊँ बताऊँ ,

किसके सामने हाथ ।

कर्म हीनता रोग व्याधि ,

बन बैठे जो अनाथ ।


चलो चलें अपने को साधें 

जो साध्य हो साध ।

निबल नहीं हैं सबल सभी हैं 

पग धर बड़ो अबाध ।


                 - गोपाल पाठक 

                       






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