देख सखी मुस्कान छवि नित
अधरों पे कुछ धार ।
तेज चमकता मुख की शोभा
भले नहीं गलेहार ।
फटे बसन तन मैल पड़े हैं
नहीं कोई परवाह ।
हँसी की छटा घटा पटा है
नहीं विलास की चाह ।
भुज विशाल है कंचन शोभा ,
भूख मरूँ क्या मार ?
लाल सलोने आंगन रूदन
सुनूँ कैसे चीत्कार ?
घर घूँघट की लाज बड़ी या
भूख गरीबी मार ।
नारी हूँ नर की शक्ति मैं ,
अबला बन नहीं हार ।
सर पे भार सहज ही लगता ,
दीन दरिद्र पहाड़ ।
धूल बदन हो मन नहीं व्याकुल ,
जेठ दुपहरिया ठाड़ ।
कहूँ कहाँ मैं रोऊँ बताऊँ ,
किसके सामने हाथ ।
कर्म हीनता रोग व्याधि ,
बन बैठे जो अनाथ ।
चलो चलें अपने को साधें
जो साध्य हो साध ।
निबल नहीं हैं सबल सभी हैं
पग धर बड़ो अबाध ।
- गोपाल पाठक
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