दिखती नहीं या देखती नहीं
मंजर ये हाल ।
भूख की ज्वाला पैरों में छाला ,
तड़पन पुकार ।
जो बनया तेरा आलीशान ,
सोये हो खा कर मधुर पान
वो मजदूर मजबूर है साहब !
चीख टीस सुना कभी कान ?
ये तो आदत ही नहीं , पर पीड़ा सुनना ,
राजनेताओं में हो संस्कार ।
धन की धमक शोहरत की चमक से,
अधिकारी भी हो जाते लाचार ।
छह साल की कथा सत्तर साल की व्यथा का,
मचा रहे हो शोर ।
पर दूध मुँहें बच्चों का रूदन ,
संसदशाहों को नहीं करता झकझोर ।
नया भारत एकीशवीं सदी चांद तक पहुँच ,
मंगल तक है अभियान ।
पर बेवस त्राहित श्रमिक की वेदना से ,
आज बन बैठे हैं अंजान ।
© गोपाल पाठक
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