कविता संग्रह

Sunday, May 17, 2020

बन बैठे हैं अंजान....

दिखती नहीं या देखती नहीं 
मंजर ये हाल ।
भूख की ज्वाला पैरों में छाला ,
तड़पन पुकार ।


जो बनया तेरा आलीशान ,
सोये हो खा कर मधुर पान
वो मजदूर मजबूर है साहब ! 
चीख टीस सुना कभी कान ?

ये तो आदत ही नहीं , पर पीड़ा सुनना ,
राजनेताओं में हो संस्कार ।
धन की धमक शोहरत की चमक से,
अधिकारी भी हो जाते लाचार ।

छह साल की कथा सत्तर साल की व्यथा का,
 मचा रहे हो  शोर ।
पर दूध मुँहें बच्चों का रूदन ,
संसदशाहों को नहीं करता झकझोर । 

नया भारत एकीशवीं सदी चांद तक पहुँच ,
मंगल तक है अभियान ।
पर बेवस त्राहित श्रमिक की वेदना से ,
आज बन बैठे हैं अंजान ।

              © गोपाल पाठक 

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