आजादी का पचहत्तर वर्ष
और हर घर तिरंगा
राष्ट्रवाद का बह रहा है यमुना गंगा
पर यमुना गंगा निर्मल है!
स्वच्छ है!
या दिल्ली कानपुर जैसा
यह प्रश्न है ।
डुबकी लगाऊं या हाथ जोड़ लूं
"आस्था के कुंभ में डुबकी धर्म है"
सरकार रूपी संत का यही कथन है।
हे संत !
यह दिखावा तो नहीं
आपका छलावा तो नहीं
आप धर्म और कर्तव्य से विमुख हैं
कह रहा हूं यह कटू
परन्तु ; परम सत्य है।
कैसा उत्सव अमृत महोत्सव
सुनो ; यदि कान है!
पचहत्तर वर्ष हो गये
झोपड़ी में भी नहीं सड़क पर
भूखे आज चित्कार है
नौजवान वेरोजगार है ,
महंगाई कमरतोड़ मार है
और आपकी कथन इनके लिए नहीं ,
यह कैसा व्यवहार है ।
राजनीति की चासनी में मिठास तिरंगा तले!
नहीं!
तिरंगा आन-वान-शान के प्रतिक है
देश का स्वाभिमान है
आप कहें या ना कहें
तिरंगा हर देशवासियों के अरमान है।
देश की आजादी की आहुति में
अपने प्राणों के आहूत करने वाले
सर्वस्व समर्पण करने वाले
परमवीर योद्धाओं के आत्मा की शांति
तेरह से पंद्रह अगस्त तक
केवल हर घर तिरंगा से नहीं !
शिक्षा स्वास्थ्य रोजगार से है
शांति सद्भाव से है
यही हमारे पूर्वजों का तर्पण है
हे महात्मा !
आपके शिष्य अनुयाई दिनचर
केवल तिरंगे के लिए नहीं हर घर
उस झोपड़ी में झांक
जहां कोई सर पे हाथ रख सोच रहा
कूड़े बिन रहे बच्चों को ताक
जो उसी में जीवन का स्वप्न देख रहा
हाय ! आज उन महापुरूषों की बलिदानी
इस पर व्यर्थ है
भले आप को अर्थ ही अर्थ है।
© गोपाल पाठक
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