भाषा है नदी की धार तरह,
वह अविरल चंचल हिन्दी ।
है सरल प्रवृति और प्रकृति,
भारत माँ की बिन्दी ।
नहीं खाश जाति मजहब का,
नहीं अधिकार किसी का ।
नहीं है कोई क्रय विक्रय की,
भाषा हिन्दी सभी का ।
है व्यापक सर्वत्र विशिष्ठ में,
एकता की है भाषा ।
समृद्ध है यह हर्षित है,
निकले कई हैं शाखा ।
ब्रजभाषा ,कन्नौजी ,मगही,
अवधी या बुंदेली ।
राजस्थानी या गढ़वाली,
सब हिन्दी की बोली ।
यह नहीं शिर्फ उत्तर दिशी की,
बल्कि दक्षिण पश्चिम ।
पूर्वी या पूर्वोत्तर भारत,
नहीं है इसकी अंतिम ।
दक्षिण के आचार्य वल्लभा,
रामानुज विट्ठल रामानंद।
पश्चिम नरसी नाम ज्ञानेश्वर,
पूर्वी महाप्रभु चैतन्य।
ऐसे संत कवि अनेक है,
सीमित नहीं, नहीं है अंत।
वर्तमान के अंचल में भी,
हिंदी शोभित भविष्य अनंत।
- गोपाल पाठक
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