सुना करता था ,
डर लगा रहता था ,
कल्पना की ऊड़ान में खोया रहता था ,
पर देखा नहीं था ।
वह था कैसा ?
जी हाँ ! अब देख रहा हूँ
डर रहा हूँ ,
मर रहा हूँ ,
कल्पना नहीं ;
देख रहा हूँ अंदर का दृश्य !
भयावह पिशाच सा भूख
नख मही बकोटता रूप
चूड़ैल जैसी आर्थिक तंगी
काला वदन घूमती नंगी
विकराल काल की तरह बेरोजगारी
बेबस होकर मरने की तैयारी
डायन डाकिनी सी महंगाई
खाये जा रही कलेजा, सो रही चारपाई
उपर से घोर अघोरी नेता का तंत्र
तड़प मरे शवों से सिद्ध करता मंत्र
अपने धुनी में बेबसी बेचारी जनता की फिर क्या परवाह
मरे जिये भूखे लाचारी से क्या बरताव
चल हट ! यही शब्द दीन दुखियारियों पर
और अपना पग शान की सवारियों पर
तो बता !
भूत झाड़ेगा कौन?
चूड़ैल डाकिनी डायन से बचायेगा कौन ?
जड़ी बूटी रूपी पोषाहार खाद्य सुरक्षा देगा कौन ?
कौन ! कौन !
बस , जिंदगी से हो जाओ मौन ! मौन ! मौन !
© गोपाल पाठक
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