तू क्या जाने मेरे मन की , बेटा तू मनमानी में ।
खुद की करनी पर अब रोना , सोंच तेरी अज्ञानी में ।।
आज विपदा महा भयावह ,बोलो ये किसकी करनी ।
दैत्य कोरोना अदृश्य होकर ,मेरे हिय को कर छलनी ।।
आँसू की अविरल धारा बह , धरा नयन किसको दिखती ।
अपने स्वार्थ परम सत्ता की ,हनक लोभ चढ़ती रहती ।।
तू गलती कर अब रोये हो ,पहले मौज मनाये हो ।
मैं तो कल और आज भी रोती , नहीं कोई पराये हो ।।
जल जंगल पर्वत को नाशे, मानवता नहीं कभी पाले ।
जलचर थलचर नभचर को ,रसना के रस भर तू डाले ।।
अब का हाल मानव मानवता, पनघट का घट रह मारे ।
पड़ा प्यासा मानवता रह, मानव कौन कहे हारे ।।
--::--
© गोपाल पाठक
खुद की करनी पर अब रोना , सोंच तेरी अज्ञानी में ।।
आज विपदा महा भयावह ,बोलो ये किसकी करनी ।
दैत्य कोरोना अदृश्य होकर ,मेरे हिय को कर छलनी ।।
आँसू की अविरल धारा बह , धरा नयन किसको दिखती ।
अपने स्वार्थ परम सत्ता की ,हनक लोभ चढ़ती रहती ।।
तू गलती कर अब रोये हो ,पहले मौज मनाये हो ।
मैं तो कल और आज भी रोती , नहीं कोई पराये हो ।।
जल जंगल पर्वत को नाशे, मानवता नहीं कभी पाले ।
जलचर थलचर नभचर को ,रसना के रस भर तू डाले ।।
अब का हाल मानव मानवता, पनघट का घट रह मारे ।
पड़ा प्यासा मानवता रह, मानव कौन कहे हारे ।।
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© गोपाल पाठक
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