जगत जननी सुनो विनती
पूजन स्वीकार कर मेरा।
पड़ा भव जाल सिंधु में
करो उद्धार अब मेरा ।
नहीं कोई सहारा है
नहीं कोई हमारा है ।
बस तू हीं हो मैया
जो मेरा खेवनहारा है ।
मति मंद मोह बस मैया
नहीं नित ध्यान करता हूँ ।
लोभी मन पाप हिय बसी जा
पूजन से दूर रहता हूँ ।
नहीं कुछ शुद्धता है माँ
अशुद्धता जड़ बना देता ।
हटूँ मैं दूर अब कैसे
माया नूतन बना लेता ।
सुना हूँ आप की महिमा
पुकारे तू चली आती ।
देती धन-धान्य अरू दौलत
भक्ति रस पान करवाती ।।
* जय माता दी *
---: समाप्त :---
© गोपाल पाठक
No comments:
Post a Comment