पंचरत्न ! जो देखते ही देखते ही चल गये ।
देश को शून्य कर सूक्ष्म बन चले गये ।।
रूक अब सिलसिला थम जरा यहीं पर ।
धर्मराज माप दंड क्या तेरा जो तुम कह ।।
लील कर रहे हो नील देश हो रहा ।
काल या काल का समझ अब न रहा ।।
हिल रहा राष्ट्र भींग भारती की अँखियाँ ।
लाल लली पंचत्व जात दिन रतियाँ ।।
क्या कहीं भूल है फाईल में धूल है ।
कुछ तो बताओ तूम जाने का कानून है ।।
एक को तो मान लूँ चार और कैसे ?
अरूण मनोहर सुषमा अनंत जैसे ।।
© गोपाल पाठक
भदसेरी
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