कविता संग्रह

Sunday, August 25, 2019


पंचरत्न ! जो देखते ही देखते ही चल गये ।
देश को शून्य कर सूक्ष्म बन चले गये ।।

रूक अब सिलसिला थम जरा यहीं पर ।
धर्मराज माप दंड क्या तेरा जो तुम कह ।।

लील कर रहे हो नील देश हो रहा ।
काल या काल का समझ अब न रहा ।।

हिल रहा राष्ट्र भींग भारती की अँखियाँ ।
लाल लली पंचत्व  जात दिन रतियाँ ।।

क्या कहीं भूल है फाईल में धूल है ।
कुछ तो बताओ तूम जाने का कानून है ।।

एक को तो मान लूँ चार और कैसे ?
अरूण मनोहर सुषमा अनंत जैसे ।।

                         © गोपाल पाठक
                                 भदसेरी

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