-: विनयदश :-
।। श्री गणेशाय नम: ।।
।। श्री सीतारामाभ्यां नम: ।।
।। श्री हनुमते नम: ।।
हे रूद्र अवतार आप शक्ति अपार ,
महासागर विशाल पर्वत सा अडिग हो ।
बुद्धि के निधान ज्ञान गुण सेवा बलवान ,
हनुमान राम ध्यान देव कलियुग हो ।।१।।
।। श्री सीतारामाभ्यां नम: ।।
।। श्री हनुमते नम: ।।
हे रूद्र अवतार आप शक्ति अपार ,
महासागर विशाल पर्वत सा अडिग हो ।
बुद्धि के निधान ज्ञान गुण सेवा बलवान ,
हनुमान राम ध्यान देव कलियुग हो ।।१।।
धरो रूप विकराल सिन्धु लङ्घन काल ,
लङ्कनी पछाड़ आप वाटिका उजारी हो ।
अक्षय कुमार मार लङ्का दहन कार ,
घोर उत्पात आप लङ्का मचायी हो ।।२।।
माता सुधी लायो आप सञ्जीविनी लायो आप ,
दोउ भ्राता राम-लखन अहि से छुड़ायो है ।
धनुर्धर के रथ पर ध्वजा में विराज कर ,
नाना बाण आप ही प्रहार से बचाये है ।।३।।
सुनो मेरी विनय पवन सुत महावीर ,
संकट विकट अब निकट में आयो है ।
रोग आधि-व्याधि व्यवधान करे भजन में ,
ग्रह प्रतिकुल हो गरीब बनायो है ।।४।।
नहीं अबलंब कोई करो न बिलंब कपि ,
हूँ असहाय न सहाय कोई दिखत है ।
जिनके प्रताप तीनों लोक रहे व्याप ,
हे रामदूत पवन पुत क्यों न सुनत हैं ।।५।।
जिसके सुनत नाम भूत-प्रेत ग्रह गोचर ,
डाकिनी पिशाच सब डर के भगत हैं ।
आप चुप साधी कैसे बैठे वीर महाबल ,
कौन ऐसे काम जो न टले न टलत है ।।६।।
हम तो अबोध नहीं ज्ञान जप तप पूजा ,
काम क्रोध मोह लोभ पाप से भरल है।
जिह्वा पर नाम नहीं भजन में ध्यान नहीं ,
तामस में बस मन स्वभाव से गरल हैं ।।७।।
हम से न नीच कोई मूर्ख अज्ञान कोई ,
आलस को पाल कर कर्म न करत हैं ।
सुना कहीं नाम हम वही मन रट रहे ,
आपकी कृपा प्रभाव राम नाम जपत हैं।।८।।
कष्ट हरो कपीश आया मैं तेरे समिप ,
और न क्लेश अब पाठक न सहत है ।
हार बैठ आलस भरा शरीर रोग ग्रस ,
ग्रह की जो मार सब कार्य रुकत है ।।९।।
सुफल मनोरथ काज पूर्ण करो कपिराज ,
नहीं कोई राजा राज जिनको जनाऊं मैं ।
आप हीं महाराज कलि अब नहीं कर देरी ,
राग भोग ठाकुर को नित दिन चलाऊं मैं।।१०।।
-: समाप्त :-
घोर उत्पात आप लङ्का मचायी हो ।।२।।
माता सुधी लायो आप सञ्जीविनी लायो आप ,
दोउ भ्राता राम-लखन अहि से छुड़ायो है ।
धनुर्धर के रथ पर ध्वजा में विराज कर ,
नाना बाण आप ही प्रहार से बचाये है ।।३।।

सुनो मेरी विनय पवन सुत महावीर ,
संकट विकट अब निकट में आयो है ।
रोग आधि-व्याधि व्यवधान करे भजन में ,
ग्रह प्रतिकुल हो गरीब बनायो है ।।४।।
नहीं अबलंब कोई करो न बिलंब कपि ,
हूँ असहाय न सहाय कोई दिखत है ।
जिनके प्रताप तीनों लोक रहे व्याप ,
हे रामदूत पवन पुत क्यों न सुनत हैं ।।५।।
जिसके सुनत नाम भूत-प्रेत ग्रह गोचर ,
डाकिनी पिशाच सब डर के भगत हैं ।
आप चुप साधी कैसे बैठे वीर महाबल ,
कौन ऐसे काम जो न टले न टलत है ।।६।।
हम तो अबोध नहीं ज्ञान जप तप पूजा ,
काम क्रोध मोह लोभ पाप से भरल है।
जिह्वा पर नाम नहीं भजन में ध्यान नहीं ,
तामस में बस मन स्वभाव से गरल हैं ।।७।।
हम से न नीच कोई मूर्ख अज्ञान कोई ,
आलस को पाल कर कर्म न करत हैं ।
सुना कहीं नाम हम वही मन रट रहे ,
आपकी कृपा प्रभाव राम नाम जपत हैं।।८।।
कष्ट हरो कपीश आया मैं तेरे समिप ,
और न क्लेश अब पाठक न सहत है ।
हार बैठ आलस भरा शरीर रोग ग्रस ,
ग्रह की जो मार सब कार्य रुकत है ।।९।।
सुफल मनोरथ काज पूर्ण करो कपिराज ,
नहीं कोई राजा राज जिनको जनाऊं मैं ।
आप हीं महाराज कलि अब नहीं कर देरी ,
राग भोग ठाकुर को नित दिन चलाऊं मैं।।१०।।
-: समाप्त :-
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