सिंहासन अब तक खामोश !
सुनी कान माता बेहोश
जनता हाथ मचलकर रोष
छप्पन ईंची में है दोष ।
छलक गया सिने में दूध
जब आया आंगन में पुत
कब तक सोया रहेगा सुत
भीड़ खड़ी देख माता पुछ ।
पलक नहीं नहीं हीलता सर
पिता के दृग हुया पत्थर
झर झर आँसू बहता निर्झर
वह भूमि पटी अश्रु से तर ।
लालिमा हटी अब मांग से ,सिंदूर हो गया दूर ।
प्रेम पिया की बात को ,छीन लिया सब क्रुर ।।
विरह विलाप की वेदना ,संभव नहीं व्याख्यान ।
हे पंथ प्रधान ! तू , लोगे कब संज्ञान ??
- गोपाल पाठक
भदसेरी
सुनी कान माता बेहोश
जनता हाथ मचलकर रोष
छप्पन ईंची में है दोष ।
छलक गया सिने में दूध
जब आया आंगन में पुत
कब तक सोया रहेगा सुत
भीड़ खड़ी देख माता पुछ ।
पलक नहीं नहीं हीलता सर
पिता के दृग हुया पत्थर
झर झर आँसू बहता निर्झर
वह भूमि पटी अश्रु से तर ।
लालिमा हटी अब मांग से ,सिंदूर हो गया दूर ।
प्रेम पिया की बात को ,छीन लिया सब क्रुर ।।
विरह विलाप की वेदना ,संभव नहीं व्याख्यान ।
हे पंथ प्रधान ! तू , लोगे कब संज्ञान ??
- गोपाल पाठक
भदसेरी
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